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Wednesday, June 19, 2013. कुछ कविताएँ. वे दोनों. वे जो अपने अपकृत्य का. नाम दे रहे हैं परिवर्तन. और वे जो परिवर्तन को. कह रहे है कुकृत्य. दोनों के साथ है कुछ लोग. मचा हुआ है. घमासान उनमें. उछल रही हैं बदजुबानियाँ. उन दोनों ने थाम ली है. वक्त के घोड़े की लगाम. हतप्रभ है जनता. और कहीं ऊपर देख रही है. इतिहास विधाता की ओर. बदल रहा है. बेबस वक्त अजनबी शक्ल में. मैंने माना था कि चाँद उजला है. और इसी दम पर. लगा दी थी बोली कि चाँद मेरा हुआ. जब खोला ढक्कन, हटाया पर्दा. कई कई बार. रुग्न निकला. लेकिन समय...हमा...

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Wednesday, June 19, 2013. कुछ कविताएँ. वे दोनों. वे जो अपने अपकृत्य का. नाम दे रहे हैं परिवर्तन. और वे जो परिवर्तन को. कह रहे है कुकृत्य. दोनों के साथ है कुछ लोग. मचा हुआ है. घमासान उनमें. उछल रही हैं बदजुबानियाँ. उन दोनों ने थाम ली है. वक्त के घोड़े की लगाम. हतप्रभ है जनता. और कहीं ऊपर देख रही है. इतिहास विधाता की ओर. बदल रहा है. बेबस वक्त अजनबी शक्ल में. मैंने माना था कि चाँद उजला है. और इसी दम पर. लगा दी थी बोली कि चाँद मेरा हुआ. जब खोला ढक्कन, हटाया पर्दा. कई कई बार. रुग्न निकला. लेकिन समय...हमा...
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Wednesday, June 19, 2013. कुछ कविताएँ. वे दोनों. वे जो अपने अपकृत्य का. नाम दे रहे हैं परिवर्तन. और वे जो परिवर्तन को. कह रहे है कुकृत्य. दोनों के साथ है कुछ लोग. मचा हुआ है. घमासान उनमें. उछल रही हैं बदजुबानियाँ. उन दोनों ने थाम ली है. वक्त के घोड़े की लगाम. हतप्रभ है जनता. और कहीं ऊपर देख रही है. इतिहास विधाता की ओर. बदल रहा है. बेबस वक्त अजनबी शक्ल में. मैंने माना था कि चाँद उजला है. और इसी दम पर. लगा दी थी बोली कि चाँद मेरा हुआ. जब खोला ढक्कन, हटाया पर्दा. कई कई बार. रुग्न निकला. लेकिन समय...हमा...

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अलक्षित: जहाँ जो कुछ भी अलक्षित

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Tuesday, October 27, 2009. जहाँ जो कुछ भी अलक्षित. जहाँ जो भी अलक्षित रह गया है. हूँ,. मौन और एकांत क्षण में ।. पेड़ से पत्ता गिरा था टूटकर. तीर रहा था जलप्लावन में कभी. फिर हुआ क्या? बैठ कर उसपर बची थी एक चींटी. बाढ़ का थामना नियत था. थम गई थी. और चींटी को मिली धरती समूची. सड़ गया पत्ता. कहीं जो गड़ गया था. मैं वही हूँ. कहीं कुछ भी जो अलक्षित रह गया है. मैं वही हूँ, मैं वही हूँ।. प्रस्तुतकर्ता. रवीन्द्र दास. Subscribe to: Post Comments (Atom). मेरी कविताएं पढें. रवीन्द्र दास. View my complete profile.

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अलक्षित: कोई फर्क नहीं पड़ता

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Wednesday, September 23, 2009. कोई फर्क नहीं पड़ता. अक्सर भटकता हुआ मैं पहुँच जाता हूँ उस तन्हाई में. जहाँ तुम रूठे से बैठे रहते हो।. और जब भी करता हूँ कोशिश मनाने की. गुम हो जाते हो न जाने कहाँ! उस ठहरे वक्त का इंतजार मैं. करता रहा हूँ आज तक. जब तुम आकर मेरी तन्हाई में. ठहर जाओगे. और मैं मर जाऊंगा. एक सुखांत नाटक की तरह हो जाएगा अंत. मेरी जिंदगी का ।. जो मैं बताऊँ झूठ. तो लोग बहाएँगे आंसू. बताऊँ सच. तो कहेंगे दीवाना , मनचला . तुम चले गए बिना बताए. तुम्हारा जाना. प्रस्तुतकर्ता. View my complete profile.

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अलक्षित: बीस और छोटी कविताएं

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Wednesday, March 20, 2013. बीस और छोटी कविताएं. उस सुनसान रास्ते पर. एक बांसुरी मिली. जैसे ही होठों से लगाया. एक स्त्री की रोने की आवाज़ निकली. दूर जा गिरी वह बांसुरी. बन खडी हुई. फुफकारता सांप बन कर. रोने की आवाज़ बदल गई. कहकहे में. मैं हतप्रभ हो. तुम्हें याद करने लगा. इतना भी जरूरी न था कि मैं कुछ बोलूं. या कुछ बोलो ही तुम. हम ने महसूस किया ही है. कि टूटता ही है कुछ न कुछ. बोलने से. नहीं बोलने का अर्थ. खामोशी ही नहीं, कुछ और भी होता है. हजारों की भीड में. कुछ और करना. शेष है? एक चेहरा. आज़ाद ह&#2379...

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अलक्षित: चुप न रहो, कुछ कहो .....

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Friday, August 7, 2009. चुप न रहो, कुछ कहो . चुप न रहोअब कहो. तुम्हें जो कुछ कहना है।. या लिखा भाग्य का मान सदा यूँ ही सहना है. कहने सुनने से बदली हैं तदवीरें. मैंने देखा है,. मुड़ जाती है वह जो. किस्मत की रेखा है. चुप-चुप घुट-घुट रहना. क्या कोई रहना है! चुप न रहो , कुछ कहो, तुम्हें जो कुछ कहना है।. और लगातार करना ही होगा. अपने जैसों की खातिर.शायद. मरना ही होगा. मौत सरीखे जीवन में. क्योंकर बहना है? चुप न रहो , कुछ कहो, भला. जो भी कहना है! नजर उठाओ, देखो. दर्पण वहीं पड़ा है. View my complete profile. द&#23...

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अलक्षित: टूटे बिखरे सच को

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Monday, April 8, 2013. टूटे बिखरे सच को. टूटे बिखरे सच को. पिरोने की कोशिश करता है सपनों से. तो वह संकोच के मारे वीतराग हो जाता है. और दुनिया को बदल देने की ज़िद में. हो जाता है दीवाना. यह सच है समय का. तेरा मेरा या किसी और का नहीं. यह समय, जो दुनिया है. यह दुनिया. जो एक खेल है जहां नाजुक और मासूम होने का. एक व्यवस्थित अर्थ है. अपना निश्चित संदर्भ है. कठोर और अक्लमंद होने का. कोई नकारा छोटा सा वियतनाम. बचा लेता है अपना वज़ूद. सूत्रधार नहीं, सबकी भूमिका. तो कोई शर्मनाक. न आज से. सुन्दर रचना. जो सबस&#2...

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कविता-समय: September 2010

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मंथन हमारी भाषा आपकी. ગુજરાતી. বাংগ্লা. ਗੁਰਮੁਖੀ. తెలుగు. हिन्दी. मंगलवार, 7 सितंबर 2010. मैं एक शिक्षक (कविता ). मैं एक शिक्षक. एक मध्यम वर्ग का संकुचित,. कुंठित आदमी।. बाहर की दुनिया में हुई तब्दीली से. चंद सपने- अपने, बच्चों के, परिवार के. बहुत अधिक अपेक्षाएं दुनिया की, समाज की. सपनों और अपेक्षाओं की प्रत्यंचा से. धनुष की तरह तना मैं. एक शिक्षक. न तो ढंग से किसी बाप का फर्ज निभाया. न बेटे , भाई या पति का. उपहारों में पाए ज्ञान का बोझ. पीठ पर लादे. लद्दू घोड़े की तरह. सिखाते हुए. नई पोस्ट.

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भारतीय-दर्शन: January 2010

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भारतीय-दर्शन. बुद्धि-विरोधी बाबाओं से सावधान रहना और काम करना सभी जागरूक मनुष्य का कर्त्तव्य है। ). मंगलवार, 19 जनवरी 2010. झूठ क्या होता है? बड़ा ही पुराना प्रसंग है - सच और झूठ का ।. क्या होता है सच? हमें पता है? सच क्या था? और हम प्रलाप नहीं करना चाहते, हम अपने भावों को संप्रेषित करना चाहते हैं।. लेकिन झूठ? झूठ का कोई चेहरा पहचानते हैं आप? यह झूठ क्या होता है? आप जिसे सच नहीं मानते , वह झूठ होता है, है न! मतलब है ।. होता है।. 0 टिप्पणियाँ. शुक्रवार, 8 जनवरी 2010. और जब नहीं समझे&#230...विकल&#238...

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कविता-समय: June 2010

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मंथन हमारी भाषा आपकी. ગુજરાતી. বাংগ্লা. ਗੁਰਮੁਖੀ. తెలుగు. हिन्दी. बुधवार, 30 जून 2010. पुलिसवालों की ड्यूटी. अब आप कहेंगे कि वे तो जाँच करते हैं हमें उनका सहयोग करना चाहिए क्यंकि मुद्दा नागरिक सुरक्षा का है।. देखिये, वे कुछ इस तरह नागरिक को परेशान करते है,. आपको हाथ देकर रुकवा लेंगे।. फिर आपका ड्राइविंग लाइसेंस मांगकर रख लेंगे।. कोई कम निकला तो चालान करेंगे।. आप शरीफ दीखते है तो गहराई से काटेंगे।. नहीं।. प्रस्तुतकर्ता. रवीन्द्र दास. 1 टिप्पणी:. इसे ईमेल करें. इसे ब्लॉग करें! नई पोस्ट. आना आपका.

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Chashmebaddoor: November 2011

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Tuesday, November 15, 2011. बाज़ार में बिक रही थी. हत्या करके लायी गई. मछलियाँ. ढेर पर ढेर लगी. मरी मछलियाँ. धड़ कटा-खून सना. बदबू फैलाती बाज़ार भर में. मरी मछलियों पर जुटी भीड़. हाथों में उठाकर. भांपती उनका ताज़ापन. लाश का ताज़ापन. भीड़ जुटी थी. मुर्गे की दूकान पर. बड़े-बड़े लोहे के पिंजरों में. बंद सफ़ेद-गुलाबी मुर्गे या मुर्गियाँ. मासूम आँखों से भीड़ को ताकते. और भीड़ ताकती उनको. भूखी निगाहों से. अपनी बाँह के दर्द में. तड़पड़ाते आदमी ने. कि कोई छू ना पाए. दुकानदार से कहता. अलग कर दिए गए.

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Chashmebaddoor: December 2011

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Thursday, December 8, 2011. लड़की की नज़र. बस स्टैंड पर बैठी लड़की कि नज़र. डूबते सूरज कि लालिमा पर पड़ी और उसकी आँखे चमक उठी. उसने तुरंत उस बेहद दिलकश नज़ारे को साझा करने के लिए. बगल ही में बैठे प्रेमी से कहा. देखो मुझे उसमे तुम ही दिख रहे हो. तुम्हारा नाम आसमान कि लाल बिंदी बन गया है. प्रेमी ने उसकी उत्सुक आँखों में डूबते हुए. हिंदी फिल्म के गाने कि एक लाइन दोहराई. तेरे चेहरे से नज़र नहीं-. हटती नज़ारे हम क्या देखें' . और उसने कहा. कुछ कहना चाहती हो? अपराजिता. Subscribe to: Posts (Atom).

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Chashmebaddoor: July 2012

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Sunday, July 29, 2012. जब हम इतने छोटे थे. जब हम इतने छोटे थे कि. चल तो सकते थे ,पर. चलने की समझ नहीं थी,. तब गर्मियों की छुट्टियों में. दिल्ली की दिवालिया दुपहरियों से निकालकर. माँ हमें नानी-घर ले जातीं. बस,ऑटो,साइकिल,गाड़ियां. तो हम घर के आस-पास रोज़ ही देख लेते. पर रेलगाडियाँ और प्लेटफ़ार्म. बस इन्ही दिनों देखने मिलते. तब हम इतने छोटे थे की. देखते तो थे पर समझते नहीं थे ,. और देखने पर चीज़ें. रेल ' रेला' बन जाती. सर पर मनों सामान लादे,भागते. हम हैरत और डर से. शेष अगले चरण में ). पल प्रतिपल.

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विभाव ( VIBHAAV ): March 2009

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Friday, March 13, 2009. राधे-कृष्ण. धीरे-धीरे घर में छा गया सन्नाटा. कल जन्माष्टमी है. राधे-कृष्ण, राधे-कृष्ण! Posted by भास्कर रौशन. फेरे सात. Posted by भास्कर रौशन. Subscribe to: Posts (Atom). समय होत बलवान. मेरी रचना, लिपि आपकी. ગુજરાતી. বাংগ্লা. ਗੁਰਮੁਖੀ. తెలుగు. हिन्दी. दिग्भ्रमण. चश्म-ए-बद्दूर. असुविधा. साहित्यालोचन. बालवृंद. धमाचौकड़ी. काव्य क्रम. उन्हें गुस्सा बहुत आता है. मैं और एक कविता. राम की बगिया. क्रम या क्रमभंग. रात की अकल्पित पर. देखी अनदेखी. आज का समय. एक मेरा साथ. साथ हो.

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विभाव ( VIBHAAV ): April 2011

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Friday, April 8, 2011. कलम में भरी है स्याही. कलम में भरी है स्याही. पर निब में नहीं आती. झटकना पड़ता था कई बार पहले. अब तो उसका भी असर नहीं. लगता है कुछ ज्यादा ही खफ़ा है मुझसे. उसके इस रवैये से दुखी बहुत हूँ. पर गुस्सा नहीं करता मैं. कुछ देर के लिए रख देता हूँ. कुछ देर बाद उठा के पता लगाता हूँ. करता हूँ प्रयास. कि हो जाये ठीक. हो भी जाती है पर ये बताकर. कि गलती मेरी थी. फिर आगे बढ़ने लगता है. हमारा प्रेम अनवरत! Posted by भास्कर रौशन. Subscribe to: Posts (Atom). समय होत बलवान. ગુજરાતી. आज का समय. रचन&#2366...

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कविता-समय: April 2015

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