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विचारार्थ

विचारार्थ. सोच , सपने और समाज. Monday, April 28, 2008. सभी को तलाश है. एक पारस पत्थर की. जो पल में ही. सब कुछ सोना कर दे. छूते ही-. पता ही न चला. यह कब तय हुआ. के स्वर्ण श्रेष्ठ है. और मिट्टी. कुछ नहीं -. इस बात की कोई. कहानी नहीं सुनी मैंने. एक दिन सपने में यह जरूर देखा था. कि जिस पहले आदमी ने. पाया था पारस. उसने उसे खा लिया था. वह सोना नहीं हुआ. उस समय सोने से बड़ी कोई चीज. होती थी शायद-. वह पत्थर अभी भी. अन्दर ही रहता है. फ़िर भी, सबको अभी भी. तलाश है. पारस पत्थर की ।. Posted by Alok Shankar. वाल&...

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विचारार्थ. सोच , सपने और समाज. Monday, April 28, 2008. सभी को तलाश है. एक पारस पत्थर की. जो पल में ही. सब कुछ सोना कर दे. छूते ही-. पता ही न चला. यह कब तय हुआ. के स्वर्ण श्रेष्ठ है. और मिट्टी. कुछ नहीं -. इस बात की कोई. कहानी नहीं सुनी मैंने. एक दिन सपने में यह जरूर देखा था. कि जिस पहले आदमी ने. पाया था पारस. उसने उसे खा लिया था. वह सोना नहीं हुआ. उस समय सोने से बड़ी कोई चीज. होती थी शायद-. वह पत्थर अभी भी. अन्दर ही रहता है. फ़िर भी, सबको अभी भी. तलाश है. पारस पत्थर की ।. Posted by Alok Shankar. वाल&...
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विचारार्थ | alokshanker.blogspot.com Reviews

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विचारार्थ. सोच , सपने और समाज. Monday, April 28, 2008. सभी को तलाश है. एक पारस पत्थर की. जो पल में ही. सब कुछ सोना कर दे. छूते ही-. पता ही न चला. यह कब तय हुआ. के स्वर्ण श्रेष्ठ है. और मिट्टी. कुछ नहीं -. इस बात की कोई. कहानी नहीं सुनी मैंने. एक दिन सपने में यह जरूर देखा था. कि जिस पहले आदमी ने. पाया था पारस. उसने उसे खा लिया था. वह सोना नहीं हुआ. उस समय सोने से बड़ी कोई चीज. होती थी शायद-. वह पत्थर अभी भी. अन्दर ही रहता है. फ़िर भी, सबको अभी भी. तलाश है. पारस पत्थर की ।. Posted by Alok Shankar. वाल&...

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विचारार्थ: April 2008

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विचारार्थ. सोच , सपने और समाज. Monday, April 28, 2008. सभी को तलाश है. एक पारस पत्थर की. जो पल में ही. सब कुछ सोना कर दे. छूते ही-. पता ही न चला. यह कब तय हुआ. के स्वर्ण श्रेष्ठ है. और मिट्टी. कुछ नहीं -. इस बात की कोई. कहानी नहीं सुनी मैंने. एक दिन सपने में यह जरूर देखा था. कि जिस पहले आदमी ने. पाया था पारस. उसने उसे खा लिया था. वह सोना नहीं हुआ. उस समय सोने से बड़ी कोई चीज. होती थी शायद-. वह पत्थर अभी भी. अन्दर ही रहता है. फ़िर भी, सबको अभी भी. तलाश है. पारस पत्थर की ।. Posted by Alok Shankar.

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विचारार्थ: कहानी केकड़ों की

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विचारार्थ. सोच , सपने और समाज. Thursday, February 28, 2008. कहानी केकड़ों की. एक बड़ी बोतल थी. उसमें बहुत सारे केकड़े थे. बोतल बड़ी थी. पर उसमे से निकला जा सकता था. थोड़ी मेहनत करके ।. जब भी कोई केकड़ा ऊपर चढ़ने की कोशिश करता. दूसरे उसकी टाँग पकड़ कर. नीचे खींच देते ।. यह चलता रहा. कोई भी केकड़ा. ऊपर नहीं जा पाता -. बाहर से देखनेवाले. खुश थे ।. एक दिन एक बुद्धिमान. केकड़ा बोतल में फ़ेंका गया. उसने एकता सिखाई. बोतल वाले केकड़ों को -. और एक एक कर के. सारे केकड़े बाहर आ गये ।. अब बाहर बैठे. Posted by Alok Shankar.

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विचारार्थ: कर्मवीर

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विचारार्थ. सोच , सपने और समाज. Saturday, February 16, 2008. सोने दो उन्हें ,. जिन्हें सोने की आदत है. कर्मवीर हैं,. ज़रा सा इस गुण का दंभ-. सो रहे हैं. आदमी जो बन रहा है।. Posted by Alok Shankar. Subscribe to: Post Comments (Atom). अन्य उत्कृष्ट ब्लाग. नवागंतुक. हिन्द युग्म. कहानी केकड़ों की. मैं , और युग्म. कौन कहता है हवा पर पाँव रख सकते नहीं, आसमाँ छूने का ये शायद कोई अन्दाज हो।. View my complete profile.

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विचारार्थ: February 2008

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विचारार्थ. सोच , सपने और समाज. Thursday, February 28, 2008. कहानी केकड़ों की. एक बड़ी बोतल थी. उसमें बहुत सारे केकड़े थे. बोतल बड़ी थी. पर उसमे से निकला जा सकता था. थोड़ी मेहनत करके ।. जब भी कोई केकड़ा ऊपर चढ़ने की कोशिश करता. दूसरे उसकी टाँग पकड़ कर. नीचे खींच देते ।. यह चलता रहा. कोई भी केकड़ा. ऊपर नहीं जा पाता -. बाहर से देखनेवाले. खुश थे ।. एक दिन एक बुद्धिमान. केकड़ा बोतल में फ़ेंका गया. उसने एकता सिखाई. बोतल वाले केकड़ों को -. और एक एक कर के. सारे केकड़े बाहर आ गये ।. अब बाहर बैठे. Posted by Alok Shankar.

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विचारार्थ: पारस

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विचारार्थ. सोच , सपने और समाज. Monday, April 28, 2008. सभी को तलाश है. एक पारस पत्थर की. जो पल में ही. सब कुछ सोना कर दे. छूते ही-. पता ही न चला. यह कब तय हुआ. के स्वर्ण श्रेष्ठ है. और मिट्टी. कुछ नहीं -. इस बात की कोई. कहानी नहीं सुनी मैंने. एक दिन सपने में यह जरूर देखा था. कि जिस पहले आदमी ने. पाया था पारस. उसने उसे खा लिया था. वह सोना नहीं हुआ. उस समय सोने से बड़ी कोई चीज. होती थी शायद-. वह पत्थर अभी भी. अन्दर ही रहता है. फ़िर भी, सबको अभी भी. तलाश है. पारस पत्थर की ।. Posted by Alok Shankar.

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दास्तां - ए - नादाँ : April 2015

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015. निःशब्दों की व्याकुलता. शब्दों की स्तब्धता. निःशब्दों की व्याकुलता. जीवन की यह आकुलता. चीत्कार या कि व्यवहारिकता ll. उत्पल कांत मिश्र "नादाँ". उत्पल कान्त मिश्रा "नादां". 2 टिप्‍पणियां:. सामाजिक चित्रण. बुधवार, 22 अप्रैल 2015. क्या माँगूँ मैं हाथ पसारी? उद्बुद्ध करते तिमिर प्रकाश में. यह उद्वेलन शीतल जो कर दे. Labels: कविता. नई पोस्ट.

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दास्तां - ए - नादाँ : January 2012

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. रविवार, 22 जनवरी 2012. जीवन संग्राम. Pic by my colleague Mr. Mahesh Singh. हे रति! एक बार पुनश्च. तुझको करना होगा त्याग विलाप. दग्धदेह, अरूप, चिरजीवित का संपोषण. सृजनशील लास्य से करना होगा. पिनाकिना का शक्ति उन्माद. नाग फणी सम करता निन्नाद. भाग्न्मनोरथा हो रही सती फिर. काम देव का निकट विनाश! गर्वोन्मत्त शव का शिवं - हास. अंध भास. हे रति. अरी मेनका. रे मानव. कि च&#23...

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दास्तां - ए - नादाँ : July 2008

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. शुक्रवार, 18 जुलाई 2008. जिधर ले चले चलो इतना बता दो पे. कोई मयखाना वां है कि नेस्त. सागर - ओ - मीना कि महफ़िल से जो उठा मैं. मेरे सुखन कि जां रहेगी नेस्त. गर मेरी जिंदगी रवाही रहनें दो पैमाना आगे. भर आया अभी सोज - ऐ - निहां नेस्त. क्या दिखाए बिना मय मजा मंजर का नेस्त. पीता चलूँ फिर सफर बेमजा नेस्त! दिल्ली जुलाई १६; २००८. 3 टिप्‍पणियां:. नई पोस्ट. एक और पहलू.

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दास्तां - ए - नादाँ : June 2014

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. शुक्रवार, 6 जून 2014. अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है. अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है. खुला आसमाँ था शहर हो गया है …………………! अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है. बयारों की सरगम किरणों का छनना. जँगल था जो सब महल हो गया है। ! अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है. उसकी तुतली सी बोली मटकना ठुमकना. अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है. ६ जून २०१४. 4 टिप्‍पणियां:. Labels: कविता. नई पोस्ट.

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दास्तां - ए - नादाँ : August 2008

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. शुक्रवार, 15 अगस्त 2008. दास्ताँ - ऐ - जीस्त. Image: think4photop / FreeDigitalPhotos.net. कोई गाँव जलाता है किसी का दिल दहलता है. हयुले में हर एक लेकिन खुदा का नूर लगता है! जमीन पर जो भी आएगा कभी आंसू बहायेगा. जफ़र - ओ - कातिलों में भी मचलता दिल धड़कता है! अजब सी है कहानी ये कहाँ पे ले के जाती है. अगस्त १४; २००८. 10 टिप्‍पणियां:. मंगलवार, 5 अगस्त 2008. तेरा र&#...याद...

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दास्तां - ए - नादाँ : November 2014

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. बुधवार, 26 नवंबर 2014. आग…… राख …… धूल …… मिट्टी. आग…… राख …… धूल …… मिट्टी. मैं राख का पुलिन्दा. इक दिन जलकर. धूल हुआ,. मिट्टी में मिला. और इस मिट्टी से. एक नया शख़्श. फिर पैदा हुआ. और फिर से. आग…… राख …… धूल …… मिट्टी ।. उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ". उत्पल कान्त मिश्रा "नादां". 9 टिप्‍पणियां:. Labels: कविता. शास्त्र. साहित्य. बुधवार, 12 नवंबर 2014. गुम हुए स&#23...हवा...

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दास्तां - ए - नादाँ : चंद ढलते ख़याल

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. चंद ढलते ख़याल. कोई गुफ़्तगू न किया करो , कोई मशविरा ना किया करो. सन्नाटों से है भरा सहर , कोई तजकिरा ना किया करो ! उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ". मुख्यपृष्ठ. सदस्यता लें संदेश (Atom). इस गैज़ेट में एक त्रुटि थी. एक और पहलू. कलम का साथ. आज की ग़ज़ल. मेरी एक ताज़ा ग़ज़ल आप सब की नज़्र. 2 माह पहले. भीगी ग़ज़ल. 4 वर्ष पहले. इन्तेखाब. कहाँ से लाऊं? 5 वर्ष पहले. 8 वर्ष पहले.

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दास्तां - ए - नादाँ : March 2014

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. बुधवार, 19 मार्च 2014. हमने पी है अभी है शराब बाकी. हमने पी है अभी है शराब बाकी. होना क्या है हबीबों खराब बाकी ……! बादाकश (१) हो उठाए सवाल ढेरों. आना बस है हया का जबाब बाकी……! लाया शीशा, मुसल्ला (२), कि साथ ए रब. तेरा मेरा रहा ये हिसाब बाकी ……! घमज़ाह (३), ज़ीनत (४), करिश्मा, यसार (५) हैं. देखा सबने ख़जाना हिसाब करके. मार्च १९, २०१४. ०२:५३ प्रातः. Labels: कविता.

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दास्तां - ए - नादाँ : December 2011

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दास्तां - ए - नादाँ : February 2015

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दास्तां - ए - नादाँ. शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ! मुखपृष्ठ. चंद ढलते ख़याल. शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015. आगोश में तेरी ऐ माँ जन्नत यहाँ क्योँ हो नहीं ! हो जर्द आँखें जिस जगह नलहत वहाँ क्योँ हो नहीं. जलते हुए ख़्वाबों भरा फिर ये जहाँ क्योँ हो नहीं ……! फिरकापरस्ती ख़ल्क़ में हर - शू जहाँ बरपा करे. वो सर्द आहें और कहीं सिसकी किसी मासूम की. इक प्यार की बाकी रही मूरत अगर तो तू रही. उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ". 1 टिप्पणी:. Labels: कलियुग. नई पोस्ट.

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