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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: April 2014
                                        http://omkagad.blogspot.com/2014_04_01_archive.html
                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014. फिर कविता लिखेँ. आज फिर कविता लिखें. कविता मेँ लिखेँ. प्रीत की रीत. जो निभ नहीँ पाई. याकि निभाई नहीँ गई! कविता मेँ आगे. रोटी लिखें. जो बनाई तो गई. मगर खिलाई नहीँ गई! रोटी के बाद. कपड़ा लिखें. जो ढांप सके. अबला की अस्मत. गरीब की गरीबी! आओ फिर तो. मकान भी लिख देँ. जिसमेँ सोए कोई. चैन की सांस ले कर. बेघर भी तो. ना मरे कोई! अब लिख ही देँ. सड़कोँ पर अमन. सीमाओँ पर सुलह. सियासत मेँ हया. जन जन मेँ ज़मीर! प्रस्तुतकर्ता. ओम पुरोहित'कागद'. असत्य ही. हम करे&#...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: May 2014
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                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. गुरुवार, मई 22, 2014. बोलेगी नहीं यह मिट्टी. सचल थी तब. खुद लेती थी आकार. छोटा-बडा़ भू-मंडल में. तब बोलती थी मिट्टी. दिखाती थी दिशाएं. साथ-साथ चल कर. आज जब सचल से. अचल है मिट्टी. कलाकार के हाथ लग. ले रही है पुन: आकार. बोलेगी नहीं. डोलेगी नहीं. किसी चौक-चौराहे. भवन या दीवार में. ठिठक जाएगी. अपने होने का. महज़ देगी आभास. इसी से पा जाएगी मंज़िल. पा जाएगी दिशाएं. आज सचल पडी़. दिशा भटकी मिट्टी! प्रख्यात चित्रकार एवम. RAM KISHAN ADIG ]. प्रस्तुतकर्ता. नई पोस्ट. ५ जुलाई १९५७. हनुम...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: कुं.चन्द्रसिंह बिरकाळी जयन्ति 27 अगस्त
                                        http://omkagad.blogspot.com/2014/08/27-2014.html
                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. गुरुवार, अगस्त 28, 2014. कुं.चन्द्रसिंह बिरकाळी जयन्ति 27 अगस्त. प्रस्तुतकर्ता. ओम पुरोहित'कागद'. इसे ईमेल करें. इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें. Facebook पर साझा करें. Pinterest पर साझा करें. कोई टिप्पणी नहीं:. एक टिप्पणी भेजें. नई पोस्ट. पुरानी पोस्ट. मुख्यपृष्ठ. सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें (Atom). ५ जुलाई १९५७. केसरीसिंहपुर (श्रीगंगानगर). बी.एड. अर राजस्थानी विशारद. छप्योड़ी. पोथ्यां. हिन्दी. आदमी नहीं है. कवितासंग्रह). मानी (बाल कहानी). बात तो ही. कुल पृष&...ब्ल...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: September 2012
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                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. मंगलवार, सितंबर 25, 2012. उनकी रसोई मेँ. पकते रहे. वे कबूतर. जो कभी हम नेँ. शांति और मित्रता की. तलाश मेँ. उड़ाए थे ।. शांति और मित्रता की. तलाश मेँ हैँ. कबूतरोँ की फिराक मेँ! प्रस्तुतकर्ता. ओम पुरोहित'कागद'. कोई टिप्पणी नहीं:. इसे ईमेल करें. इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें. Facebook पर साझा करें. Pinterest पर साझा करें. करते हुए याचना. समूचे देश में. त्यौहार है आज. सजे हैं वंदनवार. बंट रहे हैं उपहार. हो रही हैं उपासनाएं. और अधिक की याचनाएं! बत्तीस भोजन. भर भर पेट. अपनí...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: January 2013
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                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. शनिवार, जनवरी 26, 2013. गणतंत्र गाओ. गणतंत्र गाओ. सफ़र लम्बा. किया तय. हासिल क्या करना था. यह भी तय किया था. हासिल हुआ क्या. यह कौन तय करे. बताने वाले मौन हैं. पूछने वालों से कहते हैं. आप पूछने वाले कौन हैं. हम आपके नायक है. फीड़ अब खलनायक है! झंडा फहराओ. गणतंत्र गाओ. चाहे कुछ मत खाओ. भारत भाग्य विधाता है. हम पर न सही. अपन भाग्य पर तो. विश्वास क. प्रस्तुतकर्ता. ओम पुरोहित'कागद'. 3 टिप्पणियां:. इसे ईमेल करें. इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें. नई पोस्ट. सरस्वती स...म्ह...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: June 2012
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                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. शुक्रवार, जून 15, 2012. संधियों में जीवन. संधियों में जीवन. लगातार कलह. मानसिक ऊर्जा का. शोषण करती है. परस्पर संवाद रोक कर. आगे बढ़ने के. मार्ग अवरुद्ध करती है. बस इसी लिए. हताशा में. संधिया करनी पड़ती हैं।. संधियों की वैशाखियोँ पर. जीवन आगे तो बढ़ता है. अविश्वासों का मगर. सुप्त ज्वाला मुखी. भीतर ही भीतर. आकार ले कर. भरता रहता है. यह कब फट जाए. आदमी इस संदेह से. डरता रहता है ।. इसी बीच. आपस में टकराते है. इस टकराहट में. संधिया चटख जाती हैं. आपसी सम्बन्ध. बहुत पहले. शहर हो कर...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: July 2013
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                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. सोमवार, जुलाई 29, 2013. मरुधरा पर. बारिश का बरसना. केवल पानी का गिरना नहीँ. बहुत कुछ बंधा है यहां ।. जैसे कि पेड़-पोधोँ की रंगत. मोर का नृत्य. प्रेमी वृंद के. मिलन की चाह. किसान की उम्मीद. सरकारी योजनाएं. बजट की परवाज! बारिश सोख भी सकती है. कर्ज मेँ आकंठ डूबे नत्थू. अधबूढ़ी कंवारी बिमली के. कई सावन से टपकते आंसू ।. मरुधर जिन्हे. संजोए बैठी है. बारिश की आस मेँ. अंकुरित हो. कुंठित बीज. बचा सकते हैँ. मिटती लाज मरुधर की. बारिश मेँ. प्रस्तुतकर्ता. आ बैठा सूरज. नहा धो कर. अपनत्...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: October 2014
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                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. शुक्रवार, अक्तूबर 03, 2014. संतरै री फ़ांक्यां अर पौदीनै री गोळ्यां! SANTRE RI FAANKYAN AR POUDEENE RI GOLYAN. प्रस्तुतकर्ता. ओम पुरोहित'कागद'. कोई टिप्पणी नहीं:. इसे ईमेल करें. इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें. Facebook पर साझा करें. Pinterest पर साझा करें. नई पोस्ट. पुराने पोस्ट. मुख्यपृष्ठ. सदस्यता लें संदेश (Atom). ५ जुलाई १९५७. केसरीसिंहपुर (श्रीगंगानगर). बी.एड. अर राजस्थानी विशारद. छप्योड़ी. पोथ्यां. हिन्दी. आदमी नहीं है. कवितासंग्रह). है तृष्णा. कुल पृष...ब्ल...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: पूंछ आळा दूहा 69
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                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. पूंछ आळा दूहा 69. छबीस दूहा पूंछ आळा. चरका मरका चाबतां,. चंचल होगी चांच ।. फीका लागै फलकिया,. अकरा सेकै आंच ।. करमां रो कीट लागै ।. नेता नाटक मांडिया,. ले नेता री ओट ।. नेता नै नेता चुणै,. जनता घालै बोट ।।. लोक सिधारो परलोक ।।. लोक घालै बोटड़ा,. नेता भोगै राज ।. लोकराज रै आंगणै,. देखो कैड़ा काज ।।. जोग संजोग री बात।।. हाकम रै हाकम नहीँ,. चोर न जामै चोर ।. नेता तो नेता जणै,. नीँ दाता रो जोर ।।. नेता जस अमीबा ।।. चोरी जारी स्मगलिँग,. हाट करावै बंद।. लोकराज रै ग&...खूब पळ...
                                     
                                    
                                        
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                                        'कागद’ हो तो हर कोई बांचे….: May 2012
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                                        कागद’ हो तो हर कोई बांचे…. बुधवार, मई 30, 2012. भीतर का दर्द. भीतर का दर्द. भीतर के दर्द की. आती है जब उबाक. छूटता है खाना-पीना. बाहर तो बहुत कम. मगर भीतर ही भीतर. टूटता है बहुत कुछ ।. मीतर पड़ा दर्द. तोड़ता है खुद को. आते ही बाहर. बनता है तमाशा. भीतर से अधिक. बाहर है निराशा! मेरे दर्द. मेरा अपना है तू. भीतर ही ठहर. मैं ही सुलाऊंगा तुझे. दे कर थपकियां! प्रस्तुतकर्ता. ओम पुरोहित'कागद'. 1 टिप्पणी:. इसे ईमेल करें. इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें. Facebook पर साझा करें. दो कविताएं. बोल बता. आज धरा पर.