chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: November 2010
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2010_11_01_archive.html
Monday, November 29, 2010. बातें. बातें. सायास नहीं. अनायास की जाए तो. ज़्यादा सुंदर होती हैं. बातें. लफ़्ज़ों से नहीं. आँखों से की जाए तो. ज़्यादा मार्मिक होती हैं. बातें. हिचक से परे. हृदय के उच्छवास से आये तो. ज़्यादा स्थान लेती हैं. बातें. क्षणिक प्रतिक्रिया से नहीं. स्वप्न के आशियाने में सजे तो. ज़्यादा उम्र पाती हैं. इसतरह बातें. भरती है. जीवन में अर्थ. रचती हैं. संबंधों की गरिमा. अपराजिता. Subscribe to: Posts (Atom). पल प्रतिपल. मैं ". अपराजिता. View my complete profile. इर्द-गिर्द.
chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: November 2011
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2011_11_01_archive.html
Tuesday, November 15, 2011. बाज़ार में बिक रही थी. हत्या करके लायी गई. मछलियाँ. ढेर पर ढेर लगी. मरी मछलियाँ. धड़ कटा-खून सना. बदबू फैलाती बाज़ार भर में. मरी मछलियों पर जुटी भीड़. हाथों में उठाकर. भांपती उनका ताज़ापन. लाश का ताज़ापन. भीड़ जुटी थी. मुर्गे की दूकान पर. बड़े-बड़े लोहे के पिंजरों में. बंद सफ़ेद-गुलाबी मुर्गे या मुर्गियाँ. मासूम आँखों से भीड़ को ताकते. और भीड़ ताकती उनको. भूखी निगाहों से. अपनी बाँह के दर्द में. तड़पड़ाते आदमी ने. कि कोई छू ना पाए. दुकानदार से कहता. अलग कर दिए गए.
chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: December 2011
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2011_12_01_archive.html
Thursday, December 8, 2011. लड़की की नज़र. बस स्टैंड पर बैठी लड़की कि नज़र. डूबते सूरज कि लालिमा पर पड़ी और उसकी आँखे चमक उठी. उसने तुरंत उस बेहद दिलकश नज़ारे को साझा करने के लिए. बगल ही में बैठे प्रेमी से कहा. देखो मुझे उसमे तुम ही दिख रहे हो. तुम्हारा नाम आसमान कि लाल बिंदी बन गया है. प्रेमी ने उसकी उत्सुक आँखों में डूबते हुए. हिंदी फिल्म के गाने कि एक लाइन दोहराई. तेरे चेहरे से नज़र नहीं-. हटती नज़ारे हम क्या देखें' . और उसने कहा. कुछ कहना चाहती हो? अपराजिता. Subscribe to: Posts (Atom).
chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: July 2012
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2012_07_01_archive.html
Sunday, July 29, 2012. जब हम इतने छोटे थे. जब हम इतने छोटे थे कि. चल तो सकते थे ,पर. चलने की समझ नहीं थी,. तब गर्मियों की छुट्टियों में. दिल्ली की दिवालिया दुपहरियों से निकालकर. माँ हमें नानी-घर ले जातीं. बस,ऑटो,साइकिल,गाड़ियां. तो हम घर के आस-पास रोज़ ही देख लेते. पर रेलगाडियाँ और प्लेटफ़ार्म. बस इन्ही दिनों देखने मिलते. तब हम इतने छोटे थे की. देखते तो थे पर समझते नहीं थे ,. और देखने पर चीज़ें. रेल ' रेला' बन जाती. सर पर मनों सामान लादे,भागते. हम हैरत और डर से. शेष अगले चरण में ). पल प्रतिपल.
chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: December 2009
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2009_12_01_archive.html
Wednesday, December 30, 2009. ठूँठ में बदल गए. कुछ बंद दरवाजे हैं. कुछ रोज़ सुनी जाने वाली आवाज़ें. दीवारें हैं,. और बहुत कुछ है बिखरा हुआ. जिसे रोज़ समेटती हूँ. बस यही तो करती हूँ. अपनी ज़िन्दगियों को “हमारी” बनाने की कोशिश में. जितनी बार मुँह खोलती. बाँहें फैलाती. उतनी बार नासमझ करार दी जाती. उलटबाँसियों से दबा दिया जाता. उछलता कूदता मेरा मन. अनर्थों में जीता हमारा आज. अपने अपने भविष्य की ओर. अकेला ही बढ़ता जा रहा है. जहाँ तक पहुँचकर इनको फलना था. अपराजिता. Sunday, December 27, 2009. मैं ".
chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: July 2010
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2010_07_01_archive.html
Friday, July 16, 2010. कुछ भी तो अमर नहीं. हरी घास के दरीचों पर. जहाँ मेरे तुम्हारे बीच. दुनिया का अस्तित्व नहीं होता था. तुम कितने प्रेम भरे अंदाज़ में कहते. करो जो करना चाहती हो. बस एक बार आवाज़ देना. मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा. तब तो तुम प्रेमी थे, ना! सफ़र बहुत लम्बा नहीं था. पर हमने दूरियाँ बहुत सी तय कर लीं. जब मैं परेशान होती थी. तुम पूछ कर ही दम लेते. मेरी परेशानी का सबब क्या है. आज तुम समझते हो. परेशान रहना मेरी आदत है. 8220;हम” तब हम थे. आज तुम “तुम” में. न सूर्य, न धरती. मैं ".
chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: March 2012
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2012_03_01_archive.html
Thursday, March 1, 2012. वे दोनों. चार दीवारों के भीतर. वे दोनोँ मौजूद थे. कभी जिनके मौन में भी थीं. ढेर सारी बातें! जिनकी आँखें भीड़ में भी. पल भर को टकराकर. रचती थीं आख्यानक! जिनके बीच. संवादों, अभिव्यक्तियों के. दौर चला करते थे,. कम लगती थी जिन्हें जिंदगी. अपनी बातों के लिए,. चार दीवारों के भीतर मौजूद. वे दोनों अब भी बोलते हैं ,पर. अब होती हैं बहसें ,. विलुप्त होती जिंदगी पर, ,. काम और पैसे के बीच,. करते हैं बहस . ताला लगा कर जाते वक्त. उसे ताला खोलकर भी,. खोलते नहीं! अपराजिता. पल प्रतिपल.
chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: June 2009
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2009_06_01_archive.html
Sunday, June 28, 2009. दान-पुण्य. क्या है! जब भी किताब लेकर बैठती हूँ दरवाजे पर घंटी ज़रूर बजती है. खोलने भी कोई नहीं आएगा.". क्या है? क्या है री! तूने घंटी को छूआ कैसे, दूर हो.क्या चाहिए? और बुआ ने दरवाजा उसके मुँह पर दे मारा. हे शनि महाराज, बस अपनी कृपा बनाए रखना.". दरवाजा आराम से बंद करके बुआ रसोई घर में चली गई. अपराजिता. Tuesday, June 23, 2009. बचपन की उम्र. मैं सुनाती हूँ अक्सर. अपनी आठ साल की भाँजी को. कितना अलग था. तुम्हारे बचपन से. हमारा बचपन।. कभी मिट्टी से. और हमें लगता. नए गाने,. कौन - स...
chashmebaddoor.blogspot.com
Chashmebaddoor: May 2009
http://chashmebaddoor.blogspot.com/2009_05_01_archive.html
Friday, May 29, 2009. दुनिया का ढाँचा. यूँ तो देह के भीतर छिपा है. कहीं मन. कहीं वो. लोग जिसे भावों का पुंज कहते हैं. लेकिन दुनिया का ढाँचा. इसके बिल्कुल उलट है. वहाँ मन दिखता है. सब तरफ मित्रता. भाईचारा,. नैतिकता,. लेकिन बस ऊपर-ऊपर. इसके ठीक नीचे. बहुत गहरे बहुत विस्तृत. फैली है देह. देह की बू. जब कभी उठ जाती है ऊपर तक. तब सड़ने लगता है मन. गंधियाने लगता है दिमाग. पिलपिला हो जाती है दुनिया. वो दुनिया. जिसका अधिकार. पुरूष के हाथ में है. अपराजिता. Monday, May 18, 2009. जो टकराते ही. Thursday, May 14, 2009.