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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: April 2009
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Wednesday, April 29, 2009. अनुभवी शब्दकार श्री प्रसन्न वदन. चतुर्वेदी जी की एक ग़ज़ल-. यदि कोई कविता को बिना रेटिंग दिए या समीक्षा. के दो शब्द लिखे बगैर ब्लॉग से वापस जाता है तो. धन्यवाद्, शुक्रिया. जा रहा है जिधर बेखबर आदमी ।. वो नहीं मंजिलों की डगर आदमी ।. उसके मन में है हैवान बैठा हुआ,. आ रहा है हमें जो नज़र आदमी ।. नफरतों की हुकूमत बढ़ी इस कदर,. आदमी जल रहा देखकर आदमी ।. दोस्त पर भी भरोसा नहीं रह गया,. मुझको इतना बता सोचकर आदमी ।. प्रसन्न वदन. चतुर्वेदी. Monday, April 27, 2009.
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: June 2009
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Monday, June 22, 2009. अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको. अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको. बेट्टा. ख्यालों. मासूमियत. ज़िन्दगी. गुजारिश. करूँगा. तुम्हारी. आंखों. तुम्हारे. टायरों. कुरानी. तुम्हारे. खिंचाव. फिजाओं. खुशबुएँ. चाहेगा. फिजाओं. चाहेगा. बाहुपाश. तुम्हारे. आंखों. मुस्कराहट. जिंदा. तुम्हारे. होठों. तुम्हारे. तुम्हारी. आंखों. रोजमर्रा. चीजें. बातें. तुम्हें. होंगी. तुम्हारे. तुम्हें. दोनों. ख्यालों. बातें. उन्हें. आसमानों. दोनों. दुनिया. क्यूँ. मुझसे...
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: July 2009
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Friday, July 31, 2009. बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा,. वक्त का हर इक कदम, राहे जुल्म पर बढ़ता रहा।. ये सोच के कि आँच से प्यार की पिघलेगा कभी,. मैं मोमदिल कहती रही, वो पत्थर बना ठगता रहा।. उसको ख़बर नहीं थी कि मैं बेखबर नहीं,. मैं अमृत समझ पीती रही, वो जब भी ज़हर देता रहा।. मैं बारहा कहती रही, ऐ सब्र मेरे सब्र कर,. वो बारहा इस सब्र कि, हद नयी गढ़ता रहा।. बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,. दीपक 'मशाल'. चित्रांकन- दीपक 'मशाल'. Subscribe to: Posts (Atom). आज ग़ज़ल,...
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: October 2009
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Thursday, October 22, 2009. व' अक्षर इतना विनाशकारी क्यों है? व" अक्षर इतना विनाशकारी क्यूँ है. क्यूँ इससे मिलते शब्द रोते हैं. वैश्या, विकलांग, विधवा तीनो. दर्द से भरे होते हैं. वैश्या कोई भी जानम से नही होती. हालत या मजबूरी उससे कोठे पर. ले जाती है., बाँध कर घूँगरू. नाचती है रिज़ाति हैं. छुप कर. आँसू बहती है. दो प्यार के बोलों को तरस. जाती है,. मौत क़ी दुहाई हर रोज़. खुदा से मांगती. विकलांग कोई भी. मर्ज़ी से नही जानम लेता. उससे भी हक़ है. जितना सब को है. कितनी च&#...जो ...
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: March 2010
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Monday, March 29, 2010. हार गया तुमको खोकर. मैं लड़ा बहुत इस दुनिया से. सह गया बहुत कडवे ठोकर. तुम साथ रहे , मैं जीत गया. पर हार गया तुमको खोकर।. सुनील अमर. नई कलम - उभरते हस्ताक्षर. Labels: सुनील अमर. Subscribe to: Posts (Atom). मंच लेखक गण. अख्तर अली. अख्तर अली - मंटो. अब्दुल जलील. अभिषेक जायसवाल. अमित अरुण साहू. अरुण अद्भुत. आकांक्षा यादव. आलोक उपाध्याय नज़र. इंटरव्यू. एम अफसर खां सागर. कुमारेन्द्र सिंह सेंगर. कृशन चंदर. कृष्ण कुमार यादव. कौशल किशोर. जुलाई अंक. औरत की क&...
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: May 2010
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Tuesday, May 18, 2010. जा कहाँ रहे हैं? देखिये तो किसका जन्मदिन है आज- - - - - - - - - - दीपक 'मशाल'. अभी तक जिनकी रचनाएं इस मंच पर प्रकाशित हुईं उन साथियों के शुभ नाम हैं-. सुनील उमर. शिखा वर्मा "परी". नीरा राजपाल. शगुफ्ता परवीन अंसारी. दिव्या माथुर. जतिंदर "परवाज़". महेश चन्द्र गुप्त "खलिश". बीती ख़ुशी. आकांक्षा यादव. अब्दुल जलील. जूनून इलाहाबादी. कृष्ण कुमार यादव. गार्गी गुप्ता. प्रसन्नवदन चतुर्वेदी. अमित साहू. प्रिया- प्रिया. अरुण "अदभुत". दर्पण साह. Saturday, May 8, 2010.
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: January 2010
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Thursday, January 21, 2010. तुम्हें क्या मालूम ये शादी का घर है? वो शादी का घर है. वहां बहुत काम है. तुम्हें नहीं मालूम? क्या -क्या नहीं लगता. शादी का घर बनाने के लिए. कोने- कोने से टुकड़े जोड़ने होते हैं. तब जाके कहीं एक बड़ा सा-. नज़रे आलम में दिलनशीं टुकड़ा. शक्ल अख्तियार करता है. तुम्हें क्या मालूम।. नहीं कटा वक़्त. उठाई कलम लिखने बैठ गए. अच्छे खासे मौजू का बिगड़ने बैठ गए. नहीं कुछ मिला. तो किसी का सुनाने बैठ गए. हद तो तब हों गयी. वो देना तो जरा. नहीं लगा मन. होटल का. मुह...
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: March 2009
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Tuesday, March 31, 2009. महफिले ग़ज़ल. आशा करते हैं ,आप ग़ज़ल को बखूबी समझ पाएंगे। आप अपनी प्रतिक्रिया देकर सीधे सुबीर जी से सवाल -जवाब कर पाएंगे। आईये हम सब "महफिले ग़ज़ल" का लुत्फ़ उठायें।. स्वागत है आपका। "महफिले ग़ज़ल " पर जाने के लिए दायीं तरफ़ दिखाए "महफिले ग़ज़ल" पर क्लिक करें।. नई कलम - उभरते हस्ताक्षर. Labels: महफिले ग़ज़ल. Saturday, March 28, 2009. कलम के जेहन से - सम्पादकीय. शर्म कर ऐ भारतवासी - शर्म कर. शाहिद "अजनबी". नई कलम - उभरते हस्ताक्षर. अब तो चेतो।. मधुर एहसास. नाज...
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: February 2009
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Saturday, February 28, 2009. अपना सा शहर. कभी मंजिलें तो कभी सफ़र ढूँढती नज़र आई,. वो मुझे रोज़ रह गुज़र ढूँढती नज़र आई।. मैं छुपता रहा उससे कई बार और वो,. सरे बज़्म मेरी नज़र ढूँढती नज़र आई।. एक हम जो बेवफाई करके भी भूल गए,. एक वो, हर दुआ का असर ढूँढती नज़र आई।. हम ढूँढ़ते रहे इस शहर में अपना सा कोई,. और वो मुझमें अपना सा शहर ढूँढती नज़र आई।. दुआओं की तरह बदल लिए थे जो चेहरे,. मौत तुम्हे इधर तो मुझे उधर ढूँढती नज़र आई।. दर्शन= फिलोसोफी). दर्पण साह "दर्शन". Friday, February 27, 2009.
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर: August 2009
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नई क़लम - उभरते हस्ताक्षर. Wednesday, August 26, 2009. आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं. छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं. गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें. इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं. कुछ और सोच ज़रीया उस को पाने का. जंतर-मंत्र जादू-टोना ठीक नहीं. अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है. सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं. मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो. यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं. दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है. कब तक दिल पर बोझ उठायोगे ‘परवाज़’. जनाब जतिंदर 'परवाज़'. Tuesday, August 25, 2009.