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Reflections
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Oct 1, 2012. काश कि ये कलम भी बादलों सी होती,. जो बह जाती खुद-ब-खुद,. जब दिल भारी हो पड़ता. पर इसकी तकदीर में. शब्दों की मजबूरियां और. दुनिया के grammar की शर्म लिखी है,. इसीलिए शायद,. इसके हिस्से की स्याही. आँखों को बहानी पड़ती है अक्सर. Subscribe to: Post Comments (Atom). दादी की कहानियाँ. काश कि ये कलम भी बादलों सी होती, जो बह जाती खुद-ब-. कभी कभी! Kashish - My Poetry. समस्याएं अनेक, व्यक्ति केवल एक. New face of Indian Cricket - 4. विकास की दुनिया. The Mango Man And The Question Mark.
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Reflections: More random lines
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Mar 5, 2014. सावन को गिला है आसमां से कि. भूल जाओगे तुम मुझे मौसम बदलने के बाद". अब ये बेचारा कैसे बताये उसे कि. महीनों इसकी आँखों पर किसकी यादों का कुहरा छाया रहता है. Subscribe to: Post Comments (Atom). दादी की कहानियाँ. मुलाक़ात. दीवाना. वो आँखें. इश्क नहीं तो बस उनकी आरज़ू किये जा, वो जो दूर हैं ब. लफ़्ज़ों का शोर. कभी कभी दिल फ़कत इस फिराक से तेरी आवाज़ सुनना चाहता . मुसाफिर. कभी कभी! Kashish - My Poetry. समस्याएं अनेक, व्यक्ति केवल एक. New face of Indian Cricket - 4. The Mango Man And The Question Mark.
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Reflections: July 2012
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Jul 16, 2012. यादों का जिन्न. एक अलसाई सी शाम को. यादों के एक चिराग पर उंगलियां जो घुमायीं तो. तो एक बीते ज़माने का जिन्न निकल आया. और पूछ बैठा कि क्या हुक्म है मेरे आका? कहो तो ले जाऊं एक ऐसी दुनिया में जहाँ फिक्र का नाम न हो. और रातों को हँसते खेलते सुबहों से मिलने के सिवा कुछ काम न हो. जहाँ घंटे पलों में और बरस दिनों में सिमट जाएँ. और अंत में रह जाए बस एक लम्हे कि पूरी जिंदगी". या मिलवा दूँ उस शख्स से एक बार फिर. कुछ हैरान सा था ये देखकर मैं. Subscribe to: Posts (Atom). कभी कभी! Kashish - My Poetry.
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Reflections: March 2014
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Mar 5, 2014. The last one before I take another long break from scribbling. जिस्म भटकता रहता है वक्त के दो किनारों के दरमियान. पर कभी सोचा है कि इस खाके को भटकने की. ताक़त कहाँ से मिलती है? ख्वाब और अरमान तो हल्के हवा के झोंके हैं. इनमें ज़िंदगी की परवाज़ को चलाने की कूव्वत कहाँ दिखती है! एक और आग है खौफ़ की जो शायद काम आ जाती हों कभी. पर इसके असर में जान कितने ही लम्हे टिक सकती है! और इस खाके को हटाने पर कोई रूह मिल जायेगी? Links to this post. मुलाक़ात. Dedicated to the great Rumi who once wrote, ". ज़ि...
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Reflections: April 2013
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Apr 21, 2013. मैं अक्सर कुछ कम बोलता हूँ,. इसलिए मेरे बोल अक्सर मुझ तक ही रह जाते हैं. किसी बंद मुट्ठी में क़ैद कुछ राज़ों की तरह. अगर तुम कभी ये मुट्ठी खोलती. तो तुम्हे मालूम पड़ता. कि किसी तितली की तरह कैसे ये बोल. तुम्हारे आस पास मंडरा सकते थे. और शायद,. तुम्हारे सुर्ख होंठों से एक कतरा चुराकर. वख्त और जगह के धागों से आज़ाद हो जाते ये बोल. तब तुम कभी किसी किनारे पर कोई. शेल' उठाकर कानों तक लाती तो. Links to this post. Subscribe to: Posts (Atom). कभी कभी! Kashish - My Poetry. Reasons - Part One.
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Reflections: February 2013
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Feb 22, 2013. अभी ज़रा देर पहले ही तो खामोश बैठा था. लगता था दुनिया की सारी चीखें भी. इसे सोच से जगा नहीं पाएंगी,. चाहे कितनी भी आंधियां आयें या जाएँ. इसकी नीली आँखों में कहीं खो कर रह जाएँगी,. फिर एकाएक किसी को पुकार कर टूट सा गया. और बहने लगी धारें चमकती हुयी आँखों से,. ये आसमां भी आजकल बहुत 'मूडी' हो गया है,. इस पर भी तुम्हारी संगत का असर आ रहा है. Links to this post. Feb 9, 2013. एक ठहरे हुए पल में रुक नहीं पाती है जो,. जो कभी मुकम्मल तो नहीं होती. Links to this post. Subscribe to: Posts (Atom).
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Reflections: May 2013
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May 13, 2013. क्यों: Some experimental poetry. I am trying to innovate on existing forms of poetry with this post. This is an innovation inspired by the haiku tradition. The presentation of this poem is designed as follows:. The expression is in the form of very short phrases leaving the interpretation open to the reader to some extent. It begins with two related but seemingly different question. A final conclusion is in the form of a word picture. क्यों? अपरिचित क्षमताएँ. अनदेखे सवाल. Links to this post.
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Reflections: December 2011
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Dec 3, 2011. तुम कौन हो? बाहें फैलाए मिलने वाले सूरज के जैसे,. मेरे दिन रोशन कर जाया करते थे. अब ढलती शाम के ओझल होते दिन के जैसे. थोडा सा अँधेरा इस कमरे में भर जाते हो. दौड से हांफती इस जिंदगी में साँसों के जैसे. मेरे सीने में भर जाया करते थे. अब टूटते जिस्म की आखिरी श्वासों के जैसे. थोडा सा मुझे अकेला कर जाते हो. महफ़िल में गूंजने वाले बोलों के जैसे. मेरे होंठों पर सज जाया करते थे. थोडा सा यादों से खोते जाते हो. कल तुम मेरे गीत थे. अब तुम मेरे मौन हो . Subscribe to: Posts (Atom). कभी कभी!
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Reflections: February 2012
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Feb 22, 2012. तस्वीरें. Almost two amazing years at XL are about to end. Saw the Learning Center in the evening today and was reminded of a pic of the same in the admissions brochure. This poem is dedicated to the awesome place called XLRI. मैं तुम्हे कभी बस तस्वीरों से जानता था. देखता था तुमको और तुम्हारे रंगों पर आश्चर्य करता था. कि क्या हकीकत तस्वीरों के सपनों जैसी हो सकती है? फिर एक दिन तुम हकीकत बन गए. जो इनमें समा ही नहीं सकते. और अब मुझे खुद से मिलाकर. Subscribe to: Posts (Atom). Reasons - Part One.
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Reflections: November 2012
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Nov 30, 2012. जब वक्त की खरोंचों ने,. जिंदगी के पीतल से,. कहीं कहीं पर. सोने की परत को उतार दिया,. और दुनिया के सच को उभार दिया,. तब मन में सवाल आया कि. आखिर सच पर ये पानी चढाना क्यूँ ज़रुरी था? क्या दुनिया के बाजार में,. हकीक़त को कोई खरीददार नहीं मिलता? या उम्मीद थी ये कि. सोने को देख शर्म से पीतल सोना बन बैठता? या दर्द के पूरे एहसास की खातिर. खुशी का एक अधूरा वहम ज़रुरी था? मन अब भी. इन्ही सवालों में कहीं उलझा है,. और वो ज़ख्म. Links to this post. Subscribe to: Posts (Atom). कभी कभी! Reasons - Part One.