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दयार-ए-रंजन: शायद नही है...
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Saturday, July 12, 2008. शायद नही है. शहर में गांव सा मंज़र नही है,. समंदर है मगर कौसर नही है. ज़रा एहसास की शम्मा जलाओ,. जो अंदर है अभी बाहर नही है. जो दश्त-ए-गैर को पुरनम न कर दे,. वो कतरा आब है गौहर नही है. अगर हो बदगुमां तो आज़मालो,. यहां बस फूल हैं पत्थर नही है. ज़मीं पे जिस्म के टुकडे पडे थे,. वहां मस्जिद नही. मन्दिर नही है. ज़मीं है आसमां है ज़िन्दगी है,. कलम आवाज़ है खंजर नही है. सतीश पंचम. करम है मा...ज़मी...
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दयार-ए-रंजन: श्रद्धांजलि - जनाब श्री अहमद फ़राज़ साहब (1931-2008)
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Tuesday, August 26, 2008. श्रद्धांजलि - जनाब श्री अहमद फ़राज़ साहब (1931-2008). कल (25 अगस्त, 2008) उर्दू अदब के एक स्वर्णिम अध्याय का दुःखद अंत हो गया! जनाब श्री अहमद फ़राज़ साहब हमारे बीच नही रहे! उन्होने इस्लामाबाद के एक अस्पताल में अंतिम सासें लीं! खुदा उनकी रूह को तस्कीन-ए-अर्श बक्शे! जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें. आज हम दार पे खैंचे गए जिन बातों पर,. जनाब अहमद फ़राज़ साहब. August 26, 2008 at 3:25 PM.
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दयार-ए-रंजन: पौधे से जुदा होकर...
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Sunday, August 10, 2008. पौधे से जुदा होकर. वो यूं तो मुस्कुराता है मगर सहमा हुआ होकर,. सजा है फूल गुलदस्ते में पौधे से जुदा होकर. मेरी तकलीफ़ का एहसास उसको है तभी शायद,. उडा जाता है अश्कों को फ़िज़ाओं में सबा होकर. फ़कत पल भर ही देखा और नज़रें फेर लीं गोया,. बची हों कुछ अदाएं बेवफ़ाई में वफ़ा होकर. यहां बरसात के मौसम भी अब कुछ ऎसे लगते हैं,. रंजन गोरखपुरी. विनय प्रजापति 'नज़र'. August 11, 2008 at 12:46 AM. कि प...
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दयार-ए-रंजन: ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Sunday, August 3, 2008. ये इश्क इश्क है इश्क इश्क. सागर में कहीं डूब गई मय तो इश्क है,. आराइशों में कैद हुई शै तो इश्क है. दर्द-ओ-फ़ुगां यहां पे कोई चीज़ ही नही,. कांटों में अगर जश्न लगा है तो इश्क है. रुसवा अगर ये ज़ीस्त हुई, इश्क नही है,. रूहों में अगर हिज्र हुई, इश्क नही है. छूने से फ़कत साथ जो महसूस हो बिस्मिल,. जब भी अना रकीब लगे, इश्क वहीं है. रंजन गोरखपुरी. अच्छी रचना,. August 4, 2008 at 7:23 AM. शो...
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दयार-ए-रंजन: सवालों की उलझन...
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Saturday, July 19, 2008. सवालों की उलझन. हर इक आरज़ू को खता मानते हैं,. तुम्हारी कमी को सज़ा मानते हैं. किसी गाम ठोकर लगेगी उन्हे भी,. जो इन पत्थरों को खुदा मानते हैं. कभी उन अंधेरों से जाकर तो पूछो,. उजालों को क्यूं बेवफ़ा मानते हैं. नए दौर के हैं ये अहल-ए-मुहब्बत,. जो चेहरे बदलना अदा मानते हैं. चलो गांव में ही ठहाके लगाएं,. वही बेखुदी है वही बेकरारी,. रंजन गोरखपुरी. बहुत सही .सुंदर. July 20, 2008 at 1:59 PM.
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दयार-ए-रंजन: झूमते मैखाने में...
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Sunday, July 27, 2008. झूमते मैखाने में. तल्ख है जाम तो शीरीन बना लेता हूं,. गमों के दौर में चेहरे को सजा लेता हूं. हरएक शाम किसी झूमते मैखाने में,. मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ. कहीं फरेब न हो जाए उनकी आँखों से,. मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ. गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,. इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,. रंजन गोरखपुरी. केतन कनौजिया. Waaah ustaad . qatl ! Subhan allah . :). July ...
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दयार-ए-रंजन: June 2008
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Saturday, June 28, 2008. वही होगी. सबा-ए-इश्क चल गयी होगी,. फिजा में आग लग गयी होगी. वो सुबुही सी छू गयी मुझको,. शजर पे ओस की कमी होगी. सुलग रहा है कोई धूं धूं कर,. करीब ज़ब्त की नमी होगी. कोई तो खींच रहा है हर सू,. मुझे यकीन है वही होगी. खुरच के देख मेरे चारागर,. जिगर पे मुद्दतें जमी होगी. चिता की आग में वो बात कहाँ,. कफ़न में कैद ज़िंदगी होंगी. सियाह रात का सहमा मंज़र,. रंजन गोरखपुरी. Friday, June 20, 2008. मí...
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दयार-ए-रंजन: July 2008
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Sunday, July 27, 2008. झूमते मैखाने में. तल्ख है जाम तो शीरीन बना लेता हूं,. गमों के दौर में चेहरे को सजा लेता हूं. हरएक शाम किसी झूमते मैखाने में,. मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ. कहीं फरेब न हो जाए उनकी आँखों से,. मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ. गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,. इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,. रंजन गोरखपुरी. Saturday, July 19, 2008. यहां मुस्क&...वही बेख&#...वही...
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दयार-ए-रंजन: जश्न-ए-आज़ादी पर...
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रंजन" पागल शायर है बेढंगी इबादत करता है, मस्जिद में आरती गाता है, मंदिर में नमाज़ें पढता है. Friday, August 15, 2008. जश्न-ए-आज़ादी पर. बहुत समय पहले ये रचना लिखी थी और आज इस निवेदन के साथ इसे प्रेषित कर रहा हूं कि ये सर्वथा मेरा निजी खयाल है. चलो सुबह की ओर चलें हम. अंधियारे को मिटाना होगा,. बहुत दिनो हम रूठ चुके. अब मिलकर साथ निभाना होगा. खून से सिंचित हुई धरा थी. तब फ़सलें लहलाई थीं,. आज़ादी का पाठ शुरू से. दोनो को दोहराना होगा. बिखर गई थी मानवता. जब जंगें तीन लडी हमने,. August 15, 2008 at 2:19 PM. शî...