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एक गुलाबी चश्मा – ए पंखुरी पपीहा
https://thepoeticwanderer.wordpress.com/2012/04/02/एक-गुलाबी-चश्मा
स मग र पर ज ए. प ह प ह ब ल र …. एक ग ल ब चश म. अपन अन तह न सव ल क जन गल स. जब कभ ब हर न कल ग त म स न. द ख ग खय ल क दलदल म फ़न स. क तन प छ छ ड आय ह ख श क. इतन ब रन ग नह ह द न य त म ह र. ज तन त म समझत आय ह स न. वक़ त त फ़ न स उड गम क द छ न ट. त म ह र चश म क फ़ र म पर आ बस गय थ. कम बख त जम गय ह घर जव ई बन कर. व द करक उन ह एक ग ल ब चश म ल ल. हस न द न य क रन ग न आन ख स द ख. पर प रक श त क य गय. अप र ल 2, 2012. अप र ल 3, 2012. 13 व च र “एक ग ल ब चश म ” पर. अप र ल 4, 2012 क 11:27 अपर ह न. आपक ब ल ग बह त अच छ लग.
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तेरी याद ..........: Akelapan...
http://teriyaaad.blogspot.com/2011/03/akelapan.html
तेरी याद . कुछ और भी हैं मेरी ज़िन्दगी की तसवीरें , मैं वो नहीं हूँ , जो मेरे दोस्तों ने समझा है . Friday, 11 March 2011. Bheed mein rah kar bhi koi akela rahta hai,. Lakhon ke beech bhi koi tanha rahta hai,. Yeh zaruri toh nahin kee har milne waale se dil lage,. Chand baatein karne lene se nahin koi apna hota hai. Ohut Masroof Lamhoun Me. Kabhi Ek Pal Ko Soncho Toh. Koi Kitna Akela Hai. Kisi Ki Zindagi Tum Ho. Kisi Ki Har Khushi Tum Ho. Kisi Ki Kwahish Ho Tum. Kabhi Ek Pal Ko Soncho Toh. उस पत्थर ...
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मुख़्तसर : बीते लम्हों की खनक
http://shuklaabhishek147.blogspot.com/2015/08/blog-post_28.html
मुख़्तसर. कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के.तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर. शुक्रवार, 28 अगस्त 2015. बीते लम्हों की खनक. प्रस्तुतकर्ता. अभिषेक शुक्ल. इसे ईमेल करें. इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें. Facebook पर साझा करें. Pinterest पर साझा करें. पुरानी पोस्ट. मुख्यपृष्ठ. बीते लम्हों की खनक. पतझड़ में बनकर हरियाली, फूलो. एक फरेबी इंतजार की जद में . सुनो, तुम कहतीं थी न कि मै तुम्हारे लिए कव...कलम की तिरछी झाड़ू से. पौं फटी जब दूर उस क&#...मैजिक बुक. कवितì...
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मुख़्तसर : वह गोताखोर बनना चाहती थी
http://shuklaabhishek147.blogspot.com/2015/07/blog-post_31.html
मुख़्तसर. कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के.तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर. शुक्रवार, 31 जुलाई 2015. वह गोताखोर बनना चाहती थी. मुझे बताया था किसी ने. कि बचपन से ही वह गोताखोर बनना चाहती थी. बिल्कुल जलपरी सी दीखती थी वह. गहरे उतर जाने का हुनर तो उसे बखूबी आता था. समन्दर में उतरने से पहले. वह सोख लेती थी अपने हिस्से का समूचा आसमान. और निकल पड़ती थी एक अंतहीन यात्रा पर. वह जमा किया करती सुनहरी मछलियाँ,. और कुछ चमकते हुए सफ़ेद मोती. आज उदास है समन्दर. नई पोस्ट. आयु क...
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मुख़्तसर : May 2013
http://shuklaabhishek147.blogspot.com/2013_05_01_archive.html
मुख़्तसर. कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के.तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर. शुक्रवार, 31 मई 2013. तुम्हारी दिलचस्पी. शब्दों में है. बेतरतीब उछाले गये शब्दों में. तुम खोजते रहे हो. अनिश्चित क्रम में लगे. ताश के पत्ते. तुम्हे आकर्षित करते रहे हैं. तुम मान बैठते हो. उन्हें अपनी नियति. फेंटे जाने की औपचारिकता के बाद,. छिटक कर बिखर गयीं. कुछ तस्वीरों के कोलाज. तुम्हारी कुल जमा. जिन्दगी होती है,. और तुम भूल जाते हो. जमावट के बीचोंबीच. पर्याप्त है. नई पोस्ट. वक्त की...
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मुख़्तसर : ईश्वर आज खतरे में है...
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मुख़्तसर. कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के.तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर. मंगलवार, 26 नवंबर 2013. ईश्वर आज खतरे में है. तुम लिखती रही हो जीवन ही,. तुम उधेड़ रही हो परतें,. उस रहस्य की ,. तुम समझ रही हो ,. उसकी कुटिल कलाओं को,. तुम स्वीकारने लगी हो ,. उसके आयोजन में,. हर एक दाँव को ,. तुम मुस्कुरा देती हो ,. उसके बन्धन ढ़ीले पड़ जाते हैं ,. देखोगे तुम,. वो हार जायेगा एकदिन ,. ईश्वर आज खतरे में है,. बालमन की क्रीड़ाओं देखकर. अभिषेक शुक्ल. नई पोस्ट. वक्त की ब...सुन...
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मुख़्तसर : August 2015
http://shuklaabhishek147.blogspot.com/2015_08_01_archive.html
मुख़्तसर. कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के.तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर. शुक्रवार, 28 अगस्त 2015. बीते लम्हों की खनक. प्रस्तुतकर्ता. अभिषेक शुक्ल. इस संदेश के लिए लिंक. इसे ईमेल करें. इसे ब्लॉग करें! Twitter पर साझा करें. Facebook पर साझा करें. Pinterest पर साझा करें. गुरुवार, 27 अगस्त 2015. विदाई से पहले). मुझे याद है. तुम्हारी मौजू़दगी. खारिज़ करती रही है. जोड़ के सभी सिद्धान्तों को. तुम्हारा,हमारा,सबका होना. जबकि हम एक थे. तुम्हारे साथ. नई पोस्ट. बीते ...तीन...
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मुख़्तसर : एक कविता तुम्हारी गुलाबी देह के पन्नों पर
http://shuklaabhishek147.blogspot.com/2013/03/blog-post_11.html
मुख़्तसर. कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के.तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर. सोमवार, 11 मार्च 2013. एक कविता तुम्हारी गुलाबी देह के पन्नों पर. सुनो,. तुम कहतीं थी न. कि मै तुम्हारे लिए कवितायें नहीं लिखता. क्या तुम्हे याद नहीं. तुम्हारे सोलहवें जन्मदिन की. वह धूसर शाम. जब क्षितिज की आड़ में. तुम्हारी अधखुली पलकों पर उगे साँवले सूरज को. चूम लिया था मैंने. काँपते, तप्त होठों से. तब लिखा था मैंने अपना पहला छंद. और उस दिन जब मेरे बहुत कहने पर. नई पोस्ट. आयु के प&...वक्...
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मुख़्तसर : July 2015
http://shuklaabhishek147.blogspot.com/2015_07_01_archive.html
मुख़्तसर. कलम की तिरछी झाड़ू से बुहारें हैं मैंने कुछ कण कविताओं के.तुम सहेज लेना इन्हें मन की चंचल तश्तरी पर. शुक्रवार, 31 जुलाई 2015. वह गोताखोर बनना चाहती थी. मुझे बताया था किसी ने. कि बचपन से ही वह गोताखोर बनना चाहती थी. बिल्कुल जलपरी सी दीखती थी वह. गहरे उतर जाने का हुनर तो उसे बखूबी आता था. समन्दर में उतरने से पहले. वह सोख लेती थी अपने हिस्से का समूचा आसमान. और निकल पड़ती थी एक अंतहीन यात्रा पर. वह जमा किया करती सुनहरी मछलियाँ,. और कुछ चमकते हुए सफ़ेद मोती. आज उदास है समन्दर. नई पोस्ट. आयु क...
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