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काव्य-प्रसंग: July 2011
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रविवार, जुलाई 24, 2011. राजेश रेड्डी की ग़ज़लें. शाम को जिस वक्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं. मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं. जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है. जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाता हूँ मैं. सारी दुनिया से अकेले जूझ लेता हूँ कभी. और कभी अपने ही साये से भी डर जाता हूँ मैं. ज़िन्दगी जब मुझसे मजबूती की रखती है उमीद. फैसले की उस घड़ी में क्यूँ बिखर जाता हूँ मैं. होना है मेरा क़त्ल ये मालूम है मुझे. मेरी ज़िंदगी के मआनी बदल दे. खु़दा! प्रस्तुतकर्ता. 1 टिप्पणी:. दृश्य: एक. जो क...
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मौन के खाली घर में... ओम आर्य: August 2010
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मौन के खाली घर में. ओम आर्य. यही करता रहा है. Friday, August 20, 2010. अब और बंजर होने की जगह नहीं हो. वे टूटें. भूकंप के मकानों की तरह. और फटें. बादलों की तरह. हम कहीं दूर सूखे में बैठ कर. देखें उनका टूटना और फटना. लिखे उनके दुख और खुश होवें. टूट पड़ें सड़क पे. लाल बत्ती के हरी होते हीं. और बाजू में. बच कर निकलने के लिए संघर्ष करते. साइकिल वाले की साँसों का. उथल-पुथल देखते हुए. पार कर जाएँ सफ़र. रात की तेज बारिश में. बह गयी हों सारी यादें. तब भी सुबह उठ कर हम टाल जाएँ. अपनी मासूमियत. उधर पत्थर फ...
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हलंत: February 2011
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Saturday, 19 February 2011. सन्नाटे में बेरंग तस्वीरें. पुराना पड़ रहा हूँ नए पानी के साथ. खाली बोतल उदासी का सबब है और आधी खाली हुई बोतल के बाकी हिस्से में उदासी छुटी रह जाती है…. गाय का गला या घर की दीवार, मेरे भीतर अनगिनत ध्वनियाँ हैं. रीत गया कुछ अभी बीता नही. तस्वीरों में रह गए लोग. होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे…. प्रस्तुतकर्ता. इस पोस्ट से संबंधित लिंक. लेबल फ़ोटोग्राफी. Tuesday, 15 February 2011. यूँही निर्मल वर्मा - 1. स्मृतियों से भी. पिक्चर-पोस्टकार्ड. का प्रोग्राम. जैसे एक झी...क्ष...
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मन का पाखी: January 2012
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मन का पाखी. No posts. Show all posts. No posts. Show all posts. Subscribe to: Posts (Atom). स्वाभिमान टाइम्स में प्रकाशित आलेख ". View my complete profile. उड़न तश्तरी . न दैन्यं न पलायनम्. Dr Smt. Ajit Gupta. मेरी भावनायें. Aradhana-आराधना का ब्लॉग. किस्सा-कहानी. नुक्कड़. अंतर्मंथन. वीर बहुटी. अपनी बात. पाल ले इक रोग नादां. मेरी बातें. कुछ मेरी कलम से kuch meri kalam se *. देशनामा. शब्दों का सफर. अपनी, उनकी, सबकी बातें. नन्ही परी. सफ़ेद घर. ज्ञानवाणी. घुघूतीबासूती. बना रहे बनारस. मानसिक हलचल.
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मन का पाखी: September 2011
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मन का पाखी. Sunday, September 25, 2011. दो वर्ष पूरा होने की ख़ुशी ज्यादा या गम. और मैने ". हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. लिख डाली. मैने समीर जी. से वादा भी किया था.कि डा. समीर. सब जैसे मेरे जाने-पहचाने हैं. प्रसंगवश ये भी बता दूँ कि ये 'नाव्या'. नाम मैने कहाँ से लिया था? मैने कहीं ये पढ़ा और ये नाव्या नाम तभी भा गया. नाम ऐसे ही चुना था :). हाथों की लकीरों सी उलझी जिंदगी. एक पोस्ट. Links to this post. Subscribe to: Posts (Atom). View my complete profile. उड़न तश्तरी . Dr Smt. Ajit Gupta.
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पुनर्विचार: क्या शताब्दियाँ स्मृति से भी अधिक विस्मृति का वितान रचती हैं?
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पुनर्विचार. Sunday, December 12, 2010. क्या शताब्दियाँ स्मृति से भी अधिक विस्मृति का वितान रचती हैं? इस शताब्दी -समय में. जरूरी है सांस्कृतिक स्मृति को जीवित रखना. तारीखें इस में मददगार होती हैं. भुवनेश्वर को याद किया उन के जन्म के शहर शाहजहांपुर ने . शाहजहांपुर के बाहर भुवनेश्वर को कितना याद किया गया? हिंदी समाज को भुवनेश्वर की याद क्यों न आयी? क्या उन्हें भुलाया जा सकता है? यह चुनाव कौन करता है? प्रस्तुतकर्ता. आशुतोष कुमार. प्रतिक्रियाएँ:. आशुतोष जी ,. December 12, 2010 at 5:50 PM. ज़ील जी न...दूस...
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पुनर्विचार: देखते है - नाच
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पुनर्विचार. Saturday, April 16, 2011. देखते है - नाच. अज्ञेय की कविता ' नाच ' पर एक बतकही.). एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।. जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ. वह दो खम्भों के बीच है।. रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ. वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।. दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ. उस पर तीखी रोशनी पड़ती है. जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।. न मुझे देखते हैं जो नाचता है. न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ. पर मैं जो नाचता. पर तनाव ढीलता नहीं. नाच'-अज्ञेय ). नाच भ...
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पुनर्विचार: February 2011
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पुनर्विचार. Sunday, February 6, 2011. मार्क्सवादी आलोचना के प्रतिसंधों पर. संतोष चतुर्वेदी संपादित ' अनहद ' के पहले अंक में प्रकाशित. समीक्षा के बहाने हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना की नयी बहसों का एक जायजा.). वर्ग के लिए, विचारधारा के लिए? या जीवन और उस की साहित्यिक कलात्मक पुनर्रचना के लिए भी? क्या प्रतिबद्धता पर्याप्त है? अनिवार्य है? या वह महज़ एक राजनीति वैचारिक संकीर्णता है? समाज और साहित्य के द्वंदात्मक रिश्ते प् र दो...प्रत्येक आवाज खटका है. बच्चे का मॉं! कहकर पुकारना. कोई बचा है. हो सकत...
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कर्मनाशा: चाभियों की तरह गुम हो जाते है वादे : रीता पेत्रो की कवितायें
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शनिवार, 23 मार्च 2013. चाभियों की तरह गुम हो जाते है वादे : रीता पेत्रो की कवितायें. रीता पेत्रो की पाँच कवितायें. अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह). ०१- तुम्हारे बिना. इस घर में. जो है खाली और जमाव की हद तक ठंडा. मुझे देती है गर्माहट. केवल तुम्हारी जैकेट।. ०२- मत चाहो प्रतिज्ञायें. मुझसे मत चाहो प्रतिज्ञायें. चाभियों की तरह गुम हो जाते है वादे. मुझसे मत चाहो सतत प्रेम. पास ही दुबकी पड़ी हैं. अनंतता और मत्यु की छायायें. मत चाहो कि मैं कहूँ अनकहे शब्द. चाहो तो बस इतना. हमने पी कॉफ़ी. ०५- पूर्णत्व. कवितì...