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उत्तम पुरुष: August 2015
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Tuesday, 4 August 2015. मैं धर्म के अविरुद्ध काम हूँ! 2350;ैं धर्म के अविरुद्ध ‘ काम ‘ हूँ! 160; औरैं भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले,. 160; औरैं भाँति सबद पपीहन के बै गए ।. 2360;खी राधा से कहती है- -राधे! 160; . Links to this post. Subscribe to: Posts (Atom). मैं पृथ्वी की एक घनी बस्ती का. वीरान हूँ. जिसे ठीक ठीक देखने के लिए. आपको पर्यटक बनना पड़ेगा. ग़ालिब कौन है,! View my complete profile. 160; ...अपन...
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उत्तम पुरुष: June 2013
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Thursday, 13 June 2013. मेहदी हसन को याद करते हुए. कोमल गांधार से. शुरू होता था उनका अन्तरनाद. जो धैवत् और निषाद के दरम्यान कहीं. एकाकार हो जाता था. हमारी आत्मा के सबसे उत्तप्त राग से. बड़े संकोच के साथ. मेहदी हसन उतरते थे. अपनी ही आवाज़ के अंतरंग में. कि जैसे पहली बार छू रहे हों. प्रेमिका की मखमली हथेलियाँ. झुकी हुई पलकें. मानो अदृश्य कर देना चाहती हों. उस सृष्टि को. जो रची जानी है अभी अभी. स्वर पेटी से निकलते सुरों से विषम. कुछ थरथराहट होती. इसी अदृश्य में. हम काट लेते थे. दुख हमेशा. Links to this post.
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उत्तम पुरुष: May 2013
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Thursday, 30 May 2013. अँधेरे के खिलाफ अँधेरे की लड़ाई : नक्सलवाद-1. जो ज्यादा नहीं जानते वो मार्क्स को ही गालियां देने लगे हैं और सारी मुसीबत की जड़ उन्हें ही ठहरा रहे हैं. तो क्या इन जंगलों में बसने वाले निर्दोष लोगों के जीवन में कभी सुबह आयेगी? आयेगी तो कैसे आयेगी? क्या ये कभी इस महान देश में अपने पूरे नागरिक अधिकारों और गौरव के साथ रह पायेंगे? क्या इनके साथ होने वाला छल खत्म होगा? अभी इन सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं ।. Links to this post. Labels: नक्सलवाद. Friday, 24 May 2013. Links to this post.
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उत्तम पुरुष: January 2014
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Wednesday, 29 January 2014. मैं डरता हूँ/अफ़ज़ाल अहमद. मशहूर पाकिस्तानी शायर अफ़ज़ाल अहमद सैय्यद की एक बेहतरीन कविता ।. हकीक़त को खुशनुमा दिखाने की राजनीति का प्रतिरोध कर रहा है ।. मैं डरता हूँ. अपनी पास की चीज़ों को. छूकर शायरी बना देने से. रोटी को मैने छुआ. और भूख शायरी बन गयी. उंगली चाकू से कट गयी. खून शायरी बन गया. गिलास हाथ से गिर कर टूट गया. और बहुत सी नज़्में बन गयीं. मैं डरता हूँ. अपने से थोड़ी दूर की चीज़ों को. देखकर शायरी बना देने से. दरख्त को मैने देखा. Links to this post. Links to this post.
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उत्तम पुरुष: October 2014
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Monday, 27 October 2014. वो आदमी. वो आदमी. जो उठ कर अँधेरे मुह. चलता रहता है दिन भर. देर रात. ऐसे लौटता है घर. कि कोई गुनाह करके लौटा हो।. जिसके पसीने में. होती है विद्रोह की गंध. और माथे की सलवटों में. असहमति की लिपि।. जो मित्रों के बीच भी. हँसता नहीं. और भीड़ में. हो जाता है भूमिगत।. बसंत जिसके लिए. एक मौसम परिवर्तन से अधिक. कुछ नहीं।. और कविता. एक परदा है. जिसे गिराकर. वह बदलता है कपड़े।. उस आदमी के बारे में. सबसे दयनीय सूचना यह है. कि उसके खिलाफ. किसी थाने में! Links to this post. 160; &#...अपन...
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उत्तम पुरुष: July 2013
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Sunday, 14 July 2013. ये क्या ज़गह है. एक अप्रत्याशित. तरल शान्ति होती है! यहाँ इतना तापमान होता है. कि जो जमता है. वही पिघलता हुआ दिखता है! इसी जगह पर. कुछ कविताओं का होता है. अनिवार्य प्रसव. तो यहीं पर. कुछ कथाएं. जनमती हैं समय पूर्व! यहीं पर आते हैं. दुनिया के. सारे गुमनाम भूकम्प. और यहीं से. साध लिया जाता है. पृथ्वी को उसकी धुरी पर! इसी भूमध्य रेखा पर. दोनों गोलार्धों का दबाव. सबसे अधिक होता है ।. Links to this post. Labels: मेरी कविता. Subscribe to: Posts (Atom). वीरान हूँ. View my complete profile.
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कतरन | Katran: 10/21/14
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कुछ खुले ख़त. ज़िन्दगी के नाम. Oct 21, 2014. चिलम में दुःख कोई फिर भर रहा था. सारे अफ़सोस जुटाना रोज़ और उन पर फिर फिर करना अफ़सोस, ये बेगैरत सी हरकत लगभग वैसी ही ज़रूरी है, जैसे सुबह आँख खुलने को एक प्याली चाय. जैसे रॉबिन विलियम्स ने ‘डेड पोएट्स सोसाइटी’ में कहा था Carpe Diem! Labels: कुछ ख़त ज़िन्दगी के नाम (ऑलमोस्ट बकबक). Subscribe to: Posts ( Atom ). View my complete profile. मैं. और कौन. सोचती बहुत हूँ. करती कम हूँ. खूब सारे रंग बिरंगे टुकड़े देखकर ...ऑलमोस्ट बकबक. कुछ मेरी पसंद क...कुछ ख़ाल&#...एक अæ...
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कतरन | Katran: 11/06/14
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कुछ खुले ख़त. ज़िन्दगी के नाम. Nov 6, 2014. एक नज़्म: टूटी हुई चीज़ों के नाम. घर में यूँ टूट जाती हैं कुछ चीज़ें. जैसे किसी अदृश्य हाथ ने दे दिया हो धक्का,. जो जानबूझ कर तोड़ता हो चीज़ें. ये अदृश्य हाथ न मेरा है न तुम्हारा. ये उन सख्त नाखूनों वाली लड़कियों में से भी कोई नहीं है. और न ही धरती की गति से टूटी हैं ये चीज़ें. ये सब किसी व्यक्ति या वस्तु से नहीं हुआ है. नारंगी दोपहरों का भी इनमें कोई हाथ नहीं. न ही पृथ्वी पर पसरी रात का. न हमारी कोहनी से. तब तक जारी रहा उसका यह घूर्णन. वह समुद्र मे...और घिर...
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कतरन | Katran: 10/30/14
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कुछ खुले ख़त. ज़िन्दगी के नाम. Oct 30, 2014. पागल हैं घड़ी की तीनों सूइयां. पागल हैं घड़ी की तीनों सूइयां. और हफ्ते के सारे दिन. साल के सब महीने भी हैं पागल. दौड़ते रहते हैं एक दूसरे के पीछे बेतरह. जबकि बदलता कुछ भी नहीं . सिवा उनके. कि हम भी कहाँ बदल पाते हैं कुछ. सिवा खुद के. नवंबर कभी नहीं आता फरवरी से पहले. और किसी किसी महीने की प्रतीक्षा. बनी रहती है शाश्वत. कभी पूरी न होने के लिए. जैसे किसी उलझन में. हाथ से हर बार फिसल जाता है सितम्बर. खाली खाली, बेमानी. हर सप्ताह में एक दिन. Subscribe to: Posts ( Atom ).
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कतरन | Katran: 11/15/14
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कुछ खुले ख़त. ज़िन्दगी के नाम. Nov 15, 2014. मुझे पसंद है तुम्हारी ख़ामोशी. मुझे पसंद है तुम्हारी ख़ामोशी, जैसे तुम मौजूद ही नहीं. और सुन रही हो मुझे बहुत दूर से कहीं,. पर नहीं छू पा रही है मेरी सदा तुमको. यूँ लगता है कि उड़ान भर ली हों तुम्हारी पलकों ने. यूँ लगता है कि एक बोसे ने मुहरबंद कर दिया हो तुम्हारे होठों को. क्योंकि इनसब चीजों पर तारी है मेरी आत्मा का साया. इसलिए तुम भी भरी हुई हो मेरी आत्मा की मौजूदगी से. तुम मेरी रूह का ही तो अक्स हो,. जैसे तुम मृत हो. Subscribe to: Posts ( Atom ). किता...
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